ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते |
श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: || 20||
ये-जो; तु-लेकिन; धर्म-बुद्धि रूपी; अमृतम्-अमृत; इदम्-इस; यथा-जिस प्रकार से; उक्तम्-कहा गया; पर्युपासते-अनन्य भक्ति; श्रद्दधाना:-श्रद्धा के साथ; मत्-परमा:-मुझ परमात्मा को परम लक्ष्य मानते हुए; भक्ताः-भक्तजन; ते-वे; अतीव-अत्यधिक; मे-मेरे; प्रिया:-प्रिय।।
BG 12.20: वे जो यहाँ प्रकट किए गए इस अमृत रूपी ज्ञान का आदर करते हैं और मुझमें विश्वास करते हैं तथा निष्ठापूर्वक मुझे अपना परम लक्ष्य मानकर मुझ पर समर्पित होते हैं, वे मुझे अति प्रिय हैं।
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श्रीकृष्ण अब अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए इस अध्याय का समापन करते हैं। इस अध्याय के आरम्भ में अर्जुन ने उनसे पूछा था कि वे साकार रूप की भक्ति करने वालों तथा ज्ञान मार्ग द्वारा निराकार ब्रह्म की भक्ति करने वालों में से किसे श्रेष्ठ मानते हैं। श्रीकृष्ण ने दूसरे श्लोक में यह उत्तर दिया कि वे उन्हें श्रेष्ठ योगी मानते हैं जो दृढ़तापूर्वक उनके साकार रूप की भक्ति में तल्लीन रहते हैं। इसके पश्चात् उन्होनें पहले तो भक्ति के प्रकारों की व्याख्या की और फिर अपने भक्तों की विशेषताओं का वर्णन किया। इसलिए अब वह समापन करते हुए कहते हैं कि आध्यात्मिकता का सर्वोच्च मार्ग भक्ति ही है। वे जो परमात्मा को अपना परम लक्ष्य मानते हैं और पूर्ण श्रद्धा से युक्त होकर भक्ति करते हैं, ऐसे भक्त भगवान को अतिप्रिय हैं।